Tuesday, September 10, 2013

ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

क्यों अटका है यूँ आँखों में, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ
खोल कभी दिल के पन्ने, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

यों गुमसुम गुमसुम बैठा है, कैसा अंजाना भार लिए
अब रूह भी मेरी बोझल है, एक सन्नाटे का सार लिए
करने आंसा इन साँसों को, पतझड़ में मझदार तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

चन्दा, सूरज, भूमि, दरिया, सब चलते है पहले जैसे
बस मै ही ठहरा ठहरा हूँ, कोई पांवों में हो बेडी जैसे 
सज़ा तू दे, कर बरी या अब, बंदिश का अंजाम तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

थमे थमे इस दिल में, अब कोई भी उन्माद नहीं
कोई नहीं है अब अपना, किसी से अब संवाद नहीं
जाने कब का प्यासा हूँ, एक अश्रु का उपकार तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

No comments:

Post a Comment