Monday, January 5, 2009

आखिर क्या गिला है

सर्द हो गया रिश्ताएक बिखरा-बिखरा घर,
एक ठंडा सा इंसानएक बिका हुआ सामान,
कुछ बेतुकी सी बातें, और झूठों की सौगातें,
भूरी आँखों की चालाकीठोकर खाता सम्मान,

जोड़ के तुझसे नाता, यही तो हमें मिला है........
अब भी हमसे पूछते हो, आखिर क्या गिला है.....

आँखों का पथरानाडर-डर के नींद बिताना,
जज्बातों का जंजालखुलते धोखे और चाल,
एक गहरी सी ख़ामोशीहर दिन आती बेहोशी,
एक बरसों के नाते का, उलझा सुलझा सा जाल,

ढूंढ़ रहा हूँ कब सेपर विश्वास नहीं मिला है....
अब भी हमसे पूछते हो, आखिर क्या गिला है.....

वो बातों में मासूमी, हर सच को झूठ बताना,
दुनिया की सब बातों से, खुद को अंजान बताना,
भोलेपन का दिखलावा, झूठी भगवान् की पूजा,
और कहना हर बात पर, तुम बिन नहीं कोई दूजा,

समझ नहीं क्यूँ पाया, खुद से यही गिला है ......
तुमसे नहीं गिला है.... तुमसे नहीं गिला है......

एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

क्यूँ जीवन भर की खा ली कसमेंसुन एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का... 
क्यूँ देखे हमने  इतने सपने, सुनकर एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का... 

रिश्ते, नाते, विश्वास, समझ, वो खेल गए सब बातों से,
और हम समझे इसको चाहत, सुन एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

हमने छोड़ी यारी, बस्ती, और आँख मूँद ली धंधे से,
वो करते रहे हमसे धोखा, कहकर एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

वो आँख लड़ाते हैं सबसे, वो हाथ लगाते हैं सबको..
वो फाँस रहे सब दुनिया को, कह एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

यूँ आँख में रखकर भोलापन, वो छुरा पीठ में घोपते हैं,
फिर आते हैं, पुचकारते हैं, कह एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

कैसे तुझ संग जीवन जी लूं, कैसे तुझको अपना कह लूं,
जान के भी, कि प्यार तेरा, है, एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...