Thursday, January 22, 2015

(तर्ज: कहीं दूर जब दिन ढल जाये)

कभी भंवर में जो हम पड़ जाएँ
नैया हमारी हिचकोले खाए…. संभल पाए
मेरा कन्हैया हाथ पकड़ ले
बालक तेरा कहीं डूब जाएडूब जाए

छाने लगी मन पे ये घोर उदासी
अब तो तू सुन ले हारे के साथी
घनी चमक है, सब जगमग है
राह मगर कोई नज़र आये, नज़र आये
कभी भंवर में जो हम पड़ जाये.........

खो गए कहाँ मेरे सारे सपने
तोड़ के बंधन गए सब अपने
तू ही सहारा, तुझको पुकारा
कोई नहीं मेरा यहाँ तेरे सिवाय, तेरे सिवाय

कभी भंवर में जो हम पड़ जाये.........


Wednesday, August 27, 2014

यह शख्स ना जाने कैसा है

जो मेरे अन्दर रहता है, यह शख्स ना जाने कैसा है
मायुस फ़तह पर होता है,यह शख्स ना जाने कैसा है

जीने के ख़्वाब भी है शायद, और फ़ना फ़ना भी रहता है,
है जुम्बिश भी और स्पंदन भी, पर ठहरा सा भी रहता है,
यह मै ही हूँ, पर ना जानू, यह कौन है और यह कैसा है.…
जो मेरे अन्दर रहता है, यह शख्स ना जाने कैसा है........

रूह को थिरकाता साज़ भी है, और एहसासों में सोज़ भी है,
मुददत के बाद जशन भी है, और आँखों में अफ़सोस भी है,
यह खुश है या कि है ग़मगीन, यह ऐसा है या वैसा है....    
जो मेरे अन्दर रहता है, यह शख्स ना जाने कैसा है........

तोड़ के बंधन और दीवारें, जी करता है कि उड़ जाए
पर रस्ता  है ना मंज़िल है, फिर कैसे और कहाँ जाए
मीलों मील चले दुनिया यह मील के पथ्थर जैसा है
 जो मेरे अन्दर रहता है, यह शख्स ना जाने कैसा है........

मायुस फ़तह पर होता है,यह शख्स ना जाने कैसा है………

Thursday, March 27, 2014

एक सीमा होती है

इंतज़ार की भी सांवरे एक सीमा होती है
जीवन है उस पर कायम.....2
पर उम्मीद की भी एक सीमा होती है

टुकड़ों में टूटी हिम्मत, हावी हुई लाचारी
क्या हौसला रखूं मै, पल पल हुआ है भारी
कबकी है सूखी आँखें.....२
क्यूंकि आंसुओं की भी एक सीमा होती है

मेरे ह्रदय का दवंद है, मेरे ह्रदय मै बंद है
कमज़ोर से सबर के, लगता है दिन भी चंद हैं
कुछ नूर दो तिमिर मे.......२
हर रात की भी सीमा होती है  

Tuesday, September 10, 2013

ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

क्यों अटका है यूँ आँखों में, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ
खोल कभी दिल के पन्ने, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

यों गुमसुम गुमसुम बैठा है, कैसा अंजाना भार लिए
अब रूह भी मेरी बोझल है, एक सन्नाटे का सार लिए
करने आंसा इन साँसों को, पतझड़ में मझदार तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

चन्दा, सूरज, भूमि, दरिया, सब चलते है पहले जैसे
बस मै ही ठहरा ठहरा हूँ, कोई पांवों में हो बेडी जैसे 
सज़ा तू दे, कर बरी या अब, बंदिश का अंजाम तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

थमे थमे इस दिल में, अब कोई भी उन्माद नहीं
कोई नहीं है अब अपना, किसी से अब संवाद नहीं
जाने कब का प्यासा हूँ, एक अश्रु का उपकार तो ला
ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ, ऐ दर्द कभी तू बाहर तो आ

Saturday, September 7, 2013

हर हंसी से अब में डरता हूँ...

आंसू से भीगे पंख मेरे अब उड़ने से मै डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब में डरता हूँ

विश्वास, प्यार, सपने, अपने, हर शब्द से अब मै डरता हूँ
कब, कौन, कहाँ, क्यूँ छिन  जाए, हर रिश्ते से अब डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब मै डरता हूँ

रगीं महफ़िल में भी हावी, उस तन्हाई से डरता हूँ
जो शोर में भी सूना सूना, उस वीराने से डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब मै डरता हूँ

किसकी चादर कितनी मैली, उस मसले से मै डरता हूँ
तन नंगा, लिहाफ नहीं, खुद की लाचारी से मै डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब मै डरता हूँ

ठहरे दरिये सी ज़ीस्त मेरी, हर हलचल से मै डरता हूँ
बुझते दिए के खौफ सा अब, हर झोंके से मै डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब मै डरता हूँ

कतरा कतरा क्यूँ काटते हो, अब जिबाह हमारा कर डालो
ले सांस मेरी, मुझे सांस तो दो, अब जीने से मै डरता हूँ
जाने क्या दर्द छुपा रखा हो, हर हंसी से अब मै डरता हूँ




 

Wednesday, August 24, 2011

सांठ-गाँठ

ऐ विपक्षी दोस्त जाने तू भी , यह सब क्या गोरखधंधा है,
वो कहते हैं जिसे जन लोकपाल, अपने लिए वो फंदा है.....

अनशन, अहिंसा,आदर्श लेकर, खुद को वो गाँधी कहते हैं,
जानो तुम भी, जाने हम भी, तिजोरी में गाँधी रहते हैं
चलो ढाल बना लो कानून को, सिर्फ वही तो अँधा है,
क्यूंकि कहते हैं जिसे जन लोकपाल, अपने लिए वो फंदा है.....

कितने दिन जनता धरना देगी, कितने दिन शोर मचाएगी,
कुछ दिन कोसेगी हमको, फिर अपने काम को जाएगी,
हम करते रहेंगे काम अपना, क्योंकि भ्रष्टाचार हमारा धंधा है,
वो कहते हैं जिसे जन लोकपाल, अपने लिए वो फंदा है......

दो दुहाई संसद की गरिमा की, जहाँ हम जैसे बसते हैं,
चप्पल, जूते, माइक चलाते, एक दूजे पर ताने कसते हैं,
यही प्रक्रिया है संसद की, क्यूँ इसको कहते वो गन्दा हैं,
वो कहते हैं जिसे जन लोकपाल, अपने लिए वो फंदा है......

हाथ मिला लो हमसे तुम भी, मिलकर क़ानून बनायेंगे,
चाट तलवे अंग्रेजो की पड़ोसन के, हम भ्रष्टाचार फेलायेंगे,
डरो न तुम इस जनता से, उनके लिए लाठी और डंडा है,
वो कहते हैं जिसे जन लोकपाल, अपने लिए वो फंदा है......






Tuesday, February 2, 2010

यह अजब सी दास्ताँ, किसने लिखी किसने पढ़ी,
एक बार तेरा हाथ थामा, और ज़िन्दगी बस चल पड़ी

झुकती नज़रों में तमन्ना, न जाने कितने घर लिए,
उड़ रही थी हसरतें, ख़्वाबों के नए कुछ पर लिए,
अनवरत लहरों सी आरज़ू, साहिल से मिलने चल पड़ी....
एक बार तेरा हाथ थामा, और ज़िन्दगी बस चल पड़ी....

पहले लम्हे से चल पड़े, कुछ अजनबी से कारवाँ,
दिल की तमन्ना ने देखा, एक नया सा एह्कशां,
चलते रहें बस साथ यूँ ही जोड़ते सपने हर घडी.....
एक बार तेरा हाथ थामा, और ज़िन्दगी बस चल पड़ी...v