Monday, January 5, 2009

एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

क्यूँ जीवन भर की खा ली कसमेंसुन एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का... 
क्यूँ देखे हमने  इतने सपने, सुनकर एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का... 

रिश्ते, नाते, विश्वास, समझ, वो खेल गए सब बातों से,
और हम समझे इसको चाहत, सुन एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

हमने छोड़ी यारी, बस्ती, और आँख मूँद ली धंधे से,
वो करते रहे हमसे धोखा, कहकर एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

वो आँख लड़ाते हैं सबसे, वो हाथ लगाते हैं सबको..
वो फाँस रहे सब दुनिया को, कह एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

यूँ आँख में रखकर भोलापन, वो छुरा पीठ में घोपते हैं,
फिर आते हैं, पुचकारते हैं, कह एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...

कैसे तुझ संग जीवन जी लूं, कैसे तुझको अपना कह लूं,
जान के भी, कि प्यार तेरा, है, एक झूठा लफ्ज़ मुहब्बत का...


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