आँखों के तले इक दरिया है,
पर जाने क्यूँ नहीं बहता है,,,
चादर ढक सोती उम्मीदें,
मन भारी-भारी रहता है.....
अवसाद नहीं है मुझको फिर भी,
इक खलिश का आलम रहता है,,,
जड़ पत्थर हो गयी हैं आँखें,
जाने क्या चलता रहता है.....
चादर ढक सोती उम्मीदें, मन भारी-भारी रहता है.....
जमती यारों संग महफ़िल भी,
बस मुझमे विराना रहता है,,,
हँसता दुनिया के संग मै भी
पर एहसास गुमशुदा रहता है.....
चादर ढक सोती उम्मीदें, मन भारी-भारी रहता है.....
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