Saturday, October 17, 2009

कोई खरीददार न रहा

हार के हम बिकने आये, पर आज कोई बाज़ार न रहा,

मायूस खड़े हैं बीच चौराहे, कोई खरीददार न रहा..........


एक समय था गली मोहल्ले, ऊँची बोली लगती थी,

बड़े व्यापारियों के चेहते थे, चमचम रेहड़ी सजती थी,

वही पुराने जमघट लगते, बस हमसे साक्षात्कार न रहा.....

मायूस खड़े हैं बीच चौराहे, कोई खरीददार न रहा..........


हर विज्ञापन की जान भी हम थे, हर मेले का मेहमान भी हम थे,

थे किसी के शौक नवाबी, और जरुरत का सामान भी हम थे,

माल अभी भी वही है खालिस, पर कोई लेनदार न रहा.......

मायूस खड़े हैं बीच चौराहे, कोई खरीददार न रहा..........

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